मेरी जन्मभूमि और उसका सौन्दर्य
आज पुन: एक बार कुदरत का निश्छल प्रेम मुझे वहां खींच लाया जहां कभी मैंने चेतना ग्रहण की थी, जहां कभी मुझे जीवन का वरदान मिला, जहां मैंने प्रकृति को अनेकों रूपों में सजते- संवरते देखा है, वह मेरी मातृभूमि, वहां मेरा गांव.।
तकरीबन 4 वर्ष हो चुके हैं इस जन्मभूमि को छोड़े हुए और शहर के काल्पनिक चकाचौंध में प्रवेश किए हुए! वह शहर जहां पल-पल गाड़ियों ओर कारखाना में मशीनों की आवाज और जगह-जगह प्रदूषण, मेरा तो दम घुटता है इस शहर में, लेकिन क्या करूं इस समय के प्रवाह के साथ बहना होगा.!
ऐसी कोई ज्यादा दूरी नहीं है शहर की मेरे गांव से, यही महज 20 किलोमीटर.! गांव पहुंचने के पूरे रास्ते में मैं उन तीव्र गति से पीछे छूटते हुए वृक्षों, नदियों और उन खेतों में लहराती फसलों का आनंद लेता रहा और आखिर कर पहुंच गया उस पावन जन्मभूमि पर.! जैसे ही उस पावन भूमि पर कदम रखा, मैंने जन्मभूमि को प्रणाम किया.! कौन भला मुझे इतना सुख देता जितना जन्मभूमि ने मुझे दिया! इसी संदर्भ में रामायण में रामजी कहते हैं
"अपि स्वर्णमई लंका न मे लक्ष्मण रोचते!
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी!!"
अर्थात- लक्ष्मण, लंका सोने की ही क्यों ना हो, मुझे नहीं रुचती! जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से अधिक गौरवशाली है.!
इसी प्रकार कुछ लेखक विद्यानिवास मिश्र ने भी लिखा है --
" मां जब देती है, जन्मभूमि जब देती है, तब हमें कहां सुधि रहती है कि हम कुछ पा रहे हैं!उस समय तो हमारा धीरे-धीरे पलना, बढ़ना, प्यार बरसना एक साथ घटित होते रहते हैं मानो उसका देना ही हमारा आकार बन रहा हो.!"
वास्तव में कितना रोमांचक होता है उन गांवों का स्वतंत्र जीवन, हें ना? वह गांव जहां खुद को पल-पल बढ़ते देखा है, जहां बिना किसी भय के धूमिल होकर खेलते कूदते, ना खुद की फिक्र, ना समय का भान.! जहां सरिता (नदी) में जल की कल-कल प्रकृति के संगीत का मर्म बयां करती हैं! जब चांदनी रात्रि में सरिता शांत, मंद बेग से प्रवाहित होती है तो ऐसा लगता है मानो प्रकृति एकांत में सोने की सैया पर बैठकर विश्राम कर रही हो और जब इसी सरिता का प्रवाह तीव्र होता है तब ऐसा लगता है मानो प्रकृति निरंतर चलते रहने का संदेश दे रही है.! वहां इन पुष्पों से बातें करना भी कम मनमोहक नहीं होता! मुस्कुराते महकते हुए पुष्प कितनी सुहाने लगते हैं.! इन पुष्पों से बातें करना बहुत रोमांचक लगता है.! वहां के स्वतंत्र परिंदे सुबह से शाम तक बेखबर होकर घूमते, सारे जहां की यात्रा करते और रात्रि होते ही अपने आवासों में आकर सो जाते.। काश, मैं भी परिंदा होता, बिना किसी रोक-टोक के जहां मन चाहे घूमता, इन वृक्षों से बातें करता, काश, मैं भी परिंदा होता ! वहां के बृक्षों की तो बात ही अलग है.! मेरे प्यारे साथी वृक्षौं - तुम ही हो जिन्होंने हमको जीवन दिया, हमको परोपकार का संदेश दिया.! तुम खुद सूरज की कड़क धूप को सहकर दूसरों को छांव देते हो.! कितने दयावान हो तुम.! यहां की भोर(सुबह) पिता के प्रोत्साहित रूप की झलक दिखाती हैं और सांझ भी मां की ममता बन अश्रु से भर जाती है.! ऐसी होती है जन्मभूमि, ऐसा होता है गांव.!
मैने जैसे ही अपने द्वार पर कदम रखा, उन मुस्कुराते हुए चेहरों ने मुझे घेर लिया.! यह मुस्कुराते हुए चेहरे उन मासूम बच्चों के थे जिनके साथ कभी मैं भी बच्चा बन जाता था, रोने लगते थे तो चुप भी कराता था.! उन्होंने मुझे देखते ही पहचान लिया. कहते हैं बच्चे तो नासमझ होते हैं लेकिन वे समझते थे, इतने समय बाद भी मुझे भूले नहीं.! भोले भाले मासूम चेहरों में मुझे प्रकृति की दया, स्नेह और ममता नजर आती है.! मेरे पड़ोस के चाचाजी की एक लड़की है -नित्यांशी, वह बहुत मासूम है! इसकी उम्र महज 6 वर्ष है, वह बोल और सुन नहीं सकती, लेकिन मैं आश्चर्यचकित था क्योकि उसे मेरा चेहरा आज भी इतनी गहराई से याद हैं.! मुझे देखते ही बह बहुत खुश हुई और उसका भोलापन उसके नेत्रों से झलक रहा था.! उसका इशारों में बात करना रोमांचक था.! उसके उस मासूम चेहरे ने मुझे मेरे बचपन की याद दिला दी.! मैैं भी उन उन मासूम बच्चों के साथ बच्चा बनकर खेला और अपने बचपन को अनुभव किया .! काश, मैं अपने बचपन को पुन: प्राप्त कर पाता.! हालांकि मैंने लोगों में परिवर्तन देखा, रिश्तो में कड़वाहट भी तो कहीं मिठास भी लेकिन प्रकृति का वही रूप, वही झलक, वही स्नेह और वही रिश्ता., बिल्कुल वही.! कितनी दयामई है प्रकृति, है ना.!
अरे! मैं तो आपको बताना ही भूल गया.! जब मैं बहुत छोटा था, अनजान था तब मेरी किसी से बहुत गहरी मित्रता थी! एक वृक्ष से- आम्र वृक्ष.! वही वृक्ष जिसकी शीतल छांव में खेलता , जिसकी डालों पर बैठकर उन परिंदों से बातें करता और उसी वृक्ष के मीठे मीठे फलों का आनंद लेता.! आज उसी वृक्ष के नीचे बैठा हुआ हूंं और लिख रहा हूं इन पलों को, लेकिन शब्दों में इन अनुभवों को समेटना बहुत मुश्किल है। अभी भी यह वृक्ष फलों से लदा हुआ है और मैं मीठे मीठे फलों का आनंद ले रहा हूं! इन हवाओं की सर- सर की आवाज मुझे इस वृक्ष की खुशी का एहसास दिला रही है.!
अभी करीब 4:00 बज चुके हैं और सुबह होने को है, इस बात का एहसास मुझे इन परिंदों की चहल-पहल से हो गया है.! मेरी आंखें भी नम है क्योंकि अगले 1 घंटे में जन्मभूमि से विदा ले लूंगा और पता नहीं फिर कब वापस आऊंगा.! जाने का मन नहीं लेकिन मुझे जाना होगा क्योंकि मुझे समय के प्रभाव के साथ आगे बढ़ना है.! मैंने यहां के अनुभवों से बहुत कुछ सीखा है और इस जन्म भूमि पर बिताए 12 घंटे हमेशा यादगार रहेंगे! यही जीवन का सार है.!
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