कुछ चलचित्र
आज दीपावली है, चारौ और शोर सरावा और चहल पहल है, बाहर चलते हुए पटाखों की आवाज मेरे कानों में स्पष्ट गूंज रही है और मैं अपने कमरे में बैठा, ये डायरी लिख रहा हूं! मुझे तो बिल्कुल भी पसंद नहीं है लोगो के बीच में रहना क्योंकि शायद मैंने कभी लोगों के साथ, खुद को खुद में महसूस ही नहीं किया, या फिर ये लोग मुझे समझ ही नहीं पाते और इसी वजह से शायद मेरे लिए उनके साथ घुलना मिलना सदैव से मुश्किल रहा, और तब मैंरे लोगो से दूरियां बनाने का सफर सुरु हुआ और खुद के विचारों में डूबा रहना मेरी फितरत में हो गया!
वैसे आज अमावस्या है, रात काली होगी, घोर अंधेरा!
आपको डर लगता होगा ना अंधेरे से, है ना? मुझे भी लगता था बचपन में, बहुत दूर लगता अंधेरे से, लेकिन अब तो नहीं, सच कहूं तो प्रीति सी लगी है उस तिमिर से, उन अंधेरी काली रातों से, और उस एकांत से जो हमेशा से ही मेरा प्रिय शखा है! जितनी बार, खुद को अस्त-व्यस्त और उस घनघोर मायूसी से लिप्त खुद के अस्तित्व का, स्वयं से त्याग करते हुए पाया तब भी मैंने खुद को उसी एकांत और तम के प्रगाड़ साये में पाया! सच में मुझे अंधेरी रातों से बड़ा ही स्नेह रहा है, एक प्रीति सी लगी है, बहुत सुकून देता है ये अंधेरा मानो गहरा रिश्ता हो अंधेरे से! न जाने क्यों.!!
जब मैं छोटा था, देर रात तक छत पर बैठकर उस आसमान की और निहारता था, तारों को गिनता था, और हर बार गिनते गिनते भूल जाता था तो कभी कभी उस चंद्रमा को देखकर मन में हजारों प्रश्न उमड़ते थे जो उस वक्त अनुत्तरित ही रहे, जैसे कि मैं जहां भी जाता हूं, ये चंद्रमा मेरे पीछे पीछे क्यों चलता है, और ऐसे ही अनेकों प्रश्न, बहुत आनंददाई पल थे बचपन के!
इक बार की मुझे बचपन की इक बात आज भी याद है, शायद तब मैं 10 बर्ष का रहा होऊंगा, मैं स्कूल से आया था, बैग रखा और सो गया, जब नीद खुली और बाहर आकर देखा तो चंद्रमा मेरे सर के ठीक ऊपर आसमान में नजर आ रहा था, लेकिन मेरे लिए इस बात का निर्णय ले पाना कदापि मुश्किल था कि उस वक्त रात थी या सुबह! मुझे ऐसा लग रहा था मानो सुबह के 5 बजे हो! फिर भी न जाने क्यों मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था, तो शायद मैंने बड़ी दीदी से उत्सुकता और आश्चर्य से पूछा,
" दीदी, अभी सुबह है या रात?"
मेरी बात सुनकर वो हस पड़ी और मेरा मजाक उड़ाने लगीं, मुझे समझ नही आ रहा था कि ये मेरे साथ क्या हो रहा था!
कुछ देर बाद मालूम हुआ कि शाम के 7 बजे थे और गर्मियों के दिन थे तो चंद्रमा जल्दी निकल आया था!
उस दिन मुझे अहसास हुआ कि सच में न में कितना बेवकूफ था और मुझे खुद पर ही हंसी आ रही थी!
अभी दिन के करीब 1:00 बजे है अभी, लोगो की चहल पहल आवाजाही जारी है!
न जाने क्यों, मैं कुछ महसूस नहीं कर पाता अब, कोई एहसास नहीं, कोई संवेदना नहीं, कोई भाव नहीं! ऐसा लगता है मनों मेरा जीवन अलग ही कला व अलग ही आयाम में दोलन कर रहा हो! इसके बावजूद भी अतीत की यादों के दायरे से कभी बाहर तो निकल न सका! कभी अतीत की उन मीठी-मीठी, हवा के झोंको की सी स्मृतियों की शैर पर निकल जाता हूं तो कभी उन कुछ पलों के भयाभय चलचित्र मेरे नेत्रों के समक्ष बार-बार आते हैं और मैं मूक हो जाता हूं!
मुझे अहसस नहीं होता मुझमें होने का, मानो वो मैं मुझसे खफा हो गया हो! अक्सर में डायरी के पिछले पन्नों को पलट कर देखता हूं को रूह से एक ही आवाज आती है, शायद मैंने खुद को ही कहीं खो दिया!
फिलहाल, एकमात्र इच्छा है, मैं रोना चाहता हूं!
Comments
Post a Comment