कुछ चलचित्र

 ये असमंजस, ये संसय और ये उलझनें, जिनको जितना सुलझाने का प्रयास करता हूं मैं, उतना ही उलझती जाती है! हर एक बार थोड़ा सा आगे बढ़कर, पीछे मुड़ता हूं तो कुछ नजर नहीं आता सिवाय उसी धुंधालहट भरी ज़िन्दगी के, जिससे भागने का प्रयास न जाने कब से कर रहा हूं मैं! बस एक ही आभास होता है कि जहां से सफर शुरु किया था मैंने, एक बार फिर. जीवन उसी जगह बापस लौट आया है!  मेरा जीवन एक पहेली बन के रह गया है, एक पहेली जिसे सुलझाने की कसमकस में मैं स्वयं एक पहेली बन जाता हूं! कभी वो विचारों का भंवर मेरे मन की निश्चलता में ठीक उसी प्रकार की अशांत तरंगे उत्पन्न करता है जो तरंगे पानी में पत्थर डालने पर उत्पन्न होती है और तब उस पानी की चंचलता का दृष्य देखने लायक होता है!

कभी-कभी सोचता हूं कि मैं बड़ा ही क्यों हुआ, मैं फिर से बच्चा बन जाना चाहता हूं! "एक अनजान अबोध बालक" जिसे जीवन की बिस्मताओं, सुख-दुख सही-गलत आदि....का कोई ज्ञान न हो! मैं कभी बड़ा होना ही नहीं चाहता,उसी अनभिज्ञाता के पर्दे के पीछे गुम जाना चाहता हूं, मैं फिर से इक बार मेरे बचपन को जीना चाहता हूं, महशूश करना चाहता हूं, उस मां की ममता और पिता के प्यार के साए में उसी आंगन में खेलना चाहता हूं, बस इक बार फिर से.!


अक्सर दिल में एक ही ख्याल आता है कि कितना अच्छा होता ना अगर मैं पहाड़ों में पैंदा हुआ होता, इस दुनिया के शोर से दूर कहीं, प्रकृति की गोद में! मेरी किलकारियों की ध्वनि उन बीरान वादियों और अरबों वर्षों से खामोश पहाड़ों में गूंजती और मैं उन चहचवाते हुए परिन्दों के मधुरम गायन में, शुर से शुर मिलाने का प्रयास करता! कभी कभी मैं उन पहाड़ों की सवसे ऊंची चोटी चढ़ने की जिद करता तो कभी नदियों में वहती शांत सी लहरों से बातें करता! सूरज की तेजस्वी ऊर्जावान किरणों में पिता का प्रोत्साहित स्वरुप प्रदर्श होता तो वहीं, शाम भी मां की सी ममता भरके अपने बच्चों को अपने आंचल में छुपा लेती और रागिनी लोरियां सुनाती्। वाह! कितना अच्छा होता ना अगर मैं पहा़ड़ों में वड़ा हुआ होता.!!


मैं किसी ऐसी जगह जाना चाहता हूं जहां मुझे कोई न जानता हो! जहां हर एक सख्स अजनबी हो मेरे लिए!जहां सिर्फ मैं और मेरा एकांकीपन! न कोई बंदिशे,न कोई बेड़ियां! जहां मैं मुक्त हो सकूं इस भौतिकवादी दुनिया रूपी कालकोठरी से! जहां मैं अपने स्वतन्त्र विचारों के साथ उड़ान भरूं और सैर करू सारे जहां की, समय और व्योम की गति से परे.!!


काश कोई सुवह ऐसी भी हो, जहां किसी जंगल में बने किसी घर की छोटी सी खिड़की से आती सूरज की हल्की सी रक्तिम किरणें मेरे‌ मस्तक पर पड़े, तब उन किरणों की सहमी सी गर्माहट के साथ, मेरी नींद खुले, जब अम्वर में उड़ते हुए परिन्दों का संगीत हो‌ और फिर घर के सामने वहती उस नदी, के किनारे पड़ी उस वैंच पर बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ, उन ठण्डक भरी रेशमी हवाऔं के झरोकों के संग में गुम जाऊं मैं, मेरे ही चंद ख्वावों की दुनिया में!

हां ये तो है मेरे‌ ख्वाव, पर क्या होगी इनकी हकीकत!










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