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कुछ चलचित्र

 ये असमंजस, ये संसय और ये उलझनें, जिनको जितना सुलझाने का प्रयास करता हूं मैं, उतना ही उलझती जाती है! हर एक बार थोड़ा सा आगे बढ़कर, पीछे मुड़ता हूं तो कुछ नजर नहीं आता सिवाय उसी धुंधालहट भरी ज़िन्दगी के, जिससे भागने का प्रयास न जाने कब से कर रहा हूं मैं! बस एक ही आभास होता है कि जहां से सफर शुरु किया था मैंने, एक बार फिर. जीवन उसी जगह बापस लौट आया है!  मेरा जीवन एक पहेली बन के रह गया है, एक पहेली जिसे सुलझाने की कसमकस में मैं स्वयं एक पहेली बन जाता हूं! कभी वो विचारों का भंवर मेरे मन की निश्चलता में ठीक उसी प्रकार की अशांत तरंगे उत्पन्न करता है जो तरंगे पानी में पत्थर डालने पर उत्पन्न होती है और तब उस पानी की चंचलता का दृष्य देखने लायक होता है! कभी-कभी सोचता हूं कि मैं बड़ा ही क्यों हुआ, मैं फिर से बच्चा बन जाना चाहता हूं! "एक अनजान अबोध बालक" जिसे जीवन की बिस्मताओं, सुख-दुख सही-गलत आदि....का कोई ज्ञान न हो! मैं कभी बड़ा होना ही नहीं चाहता,उसी अनभिज्ञाता के पर्दे के पीछे गुम जाना चाहता हूं, मैं फिर से इक बार मेरे बचपन को जीना चाहता हूं, महशूश करना चाहता हूं, उस मां की ममता और ...

कुछ चलचित्र

 आज दीपावली है, चारौ और शोर सरावा और चहल पहल है, बाहर चलते हुए पटाखों की आवाज मेरे कानों में स्पष्ट गूंज रही है और मैं अपने कमरे में बैठा, ये डायरी लिख रहा हूं! मुझे तो बिल्कुल भी पसंद नहीं है लोगो के बीच में रहना क्योंकि शायद मैंने कभी लोगों के साथ, खुद को खुद में महसूस ही नहीं किया, या फिर ये लोग मुझे समझ ही नहीं पाते और इसी वजह से शायद मेरे लिए उनके साथ घुलना मिलना सदैव से मुश्किल रहा, और तब मैंरे लोगो से दूरियां बनाने का सफर सुरु हुआ और खुद के विचारों में डूबा रहना मेरी फितरत में हो गया! वैसे आज अमावस्या है, रात काली होगी, घोर अंधेरा! आपको डर लगता होगा ना अंधेरे से, है ना? मुझे भी लगता था बचपन में, बहुत दूर लगता अंधेरे से, लेकिन अब तो नहीं, सच कहूं तो प्रीति सी लगी है उस तिमिर से, उन अंधेरी काली रातों से, और उस एकांत से जो हमेशा से ही मेरा प्रिय शखा है! जितनी बार, खुद को अस्त-व्यस्त और उस घनघोर मायूसी से लिप्त खुद के अस्तित्व का, स्वयं से त्याग करते हुए पाया तब भी मैंने खुद को उसी एकांत और तम के प्रगाड़ साये में पाया! सच में मुझे अंधेरी रातों से बड़ा ही स्नेह रहा है, एक प्रीति ...

मेरी जन्मभूमि और उसका सौन्दर्य

 आज पुन: एक बार कुदरत का निश्छल प्रेम मुझे वहां खींच लाया जहां कभी मैंने चेतना ग्रहण की थी, जहां कभी मुझे जीवन का वरदान मिला, जहां मैंने प्रकृति को अनेकों रूपों में सजते- संवरते देखा है, वह मेरी मातृभूमि, वहां मेरा गांव.। तकरीबन 4 वर्ष हो चुके हैं इस जन्मभूमि को छोड़े हुए और शहर के काल्पनिक चकाचौंध में प्रवेश किए हुए! वह शहर जहां पल-पल गाड़ियों ओर कारखाना में मशीनों की आवाज और जगह-जगह प्रदूषण, मेरा तो दम घुटता है इस शहर में, लेकिन क्या करूं इस समय के प्रवाह के साथ बहना होगा.! ऐसी कोई ज्यादा दूरी नहीं है शहर की मेरे गांव से, यही महज 20 किलोमीटर.! गांव पहुंचने के पूरे रास्ते में मैं उन तीव्र गति से पीछे छूटते हुए वृक्षों, नदियों और उन खेतों में लहराती फसलों का आनंद लेता रहा और आखिर कर पहुंच गया उस पावन जन्मभूमि पर.! जैसे ही उस पावन भूमि पर कदम रखा, मैंने जन्मभूमि को प्रणाम किया.! कौन भला मुझे इतना सुख देता जितना जन्मभूमि ने मुझे दिया! इसी संदर्भ में रामायण में रामजी कहते हैं  " अपि स्वर्णमई लंका न मे लक्ष्मण रोचते! जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी!!" अर्थात- लक्ष्मण, लंका सोन...

तो कहो, अब क्यों वापस आए हो?

तो कहो साहव, अब क्यों वापस आये हो? क्या राह भटक तुम आए हो? जिस शख्स की तलाश है तुमको, वह तो कबका गुम चुका है, उसकी जिंदगी का सूरज  कबका ढल चुका है, उसके पुराने घर के दरवाजे पर, कई अरसे से ताला पड़ा है, जो वक्त की मार सहते-सहते अब जंग खा चुका है! तो कहो, अब क्यों वापस आए हो? क्या राह भटक तुम आए हो? जो तुमने झूठे वादों के महल सजाए थे, वह तो कबके ढह चुके हैं, जो तुमने ख्वाब दिखाए थे, वो अक्सर बाजारों में बिकते हैं, फिर अब क्यों वापस आए हो? क्या राह भटक तुम आए हो? या फिर किसी की बिखरी आत्मा को अब  जार-जार करनेका इरादा लाए हो? जो हाथ कभी तुम्हारे सर पर रहता था, अब उसकी कोमलता लुप्त हो चुकी है, उसमें कसैली झूर्रियां पड़ चुकी हैं, जिस कांधे पर तुम अपना सर रखते थे, अव उसमें जरा सी भी शक्ति नहीं रही है, तो अब क्यों वापस आए हो? ठहरोगे न? या जाने का इरादा लाए हो?